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कई बार हम स्वयं अपनी कमियाँ नहीं जान पाते !


एक शिल्पकार (tradesman) था। वह जब भी कोई मूर्ति बनाता तो खुद ही उसकी कमियां ढूढंता और फिर वैसी ही दूसरी मूर्ति बनाता जिसमें वे कमियां नहीं होती। वह पहली मूर्ति को नष्ट कर देता और दूसरी मूर्ति को ही बाजार में बेचता था। एक बार उसने एक बेहद सुंदर मूर्ति बनाई।

जब उसने देखा कि इस मूर्ति में कोई कमी नहीं है, तो वह हैरान हुआ। उसने खूब सूक्ष्मता से मूर्ति को जांचा और जब पाया कि कोई कमी नहीं है तो रोने लगा। उसके रोने की आवाज पड़ोस में रहने वाले दूलरे शिल्पकार ने सुनी। वह उसके पास आया और उसके रोने का कारण पूछा।

शिल्पकार ने कहा कि मुझे इस मूर्ति में कोई कमी नहीं दिख रहीं है। पड़ोसी ने पूछा जब कोई कमी नहीं है तो तुम रो क्यों रहे हो? शिल्पकार ने कहा जब तक मुझे अपनी कमियां नहीं दिखती तब तक मै अपनी कला को सुधार नहीं सकता। आज मुझे कोई त्रुटि नहीं दिख रहीं है, इसलिए मुझे रोना आ रहा है। यदि तुम मेरी इस मूर्ति में कोई कमी निकाल दो तो मै तुम्हारा आभारी रहूंगा। पड़ोसी ने ध्यान से मूर्ति को देखा और मूर्ति की नाक, कमर व पैरों की उंगलियों में कुछ त्रुटियां निकाली अपनी मूर्ति की त्रुटियां जानकर शिल्पकार बहुत प्रसन्न हुआ और समझ गया कि कई बार हम स्वयं अपनी त्रुटियां नहीं जान पाते जबकि दूसरे व्यक्ति उसे देख लेते है। कई बार व्यक्ति अपनी त्रुटियां नहीं निकाल पाता ऐसी स्थिति में उसे ऐसे व्यक्ति की सहायता लेनी चाहिए जो वास्तविक रूप से उसकी त्रुटियां निकाल सके।

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